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Friday 17 October 2014


कोरस रेपर्टरी थिएटर इम्फाल के संस्थापक, पूर्वाचंल के रंग- पुरोधा, रतन थियम हाल ही में राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के निमंत्रण पर जोधपुर  पधारे थे. अपने प्रवास के दौरन, स्थानीय टाउन हॉल में उन्होंने न केवल अपनी विशिष्ट शैली में मणिपुरी भाषा(मैई तेई) की तीन अविस्मरणीय नाट्य प्रस्तुतियाँ दी; अपितु संभाग के विभिन्न शहरों से जोधपुर में जुटे रंगप्रमियों के साथ गहन वार्ता एवं संवाद भी किए. इन तीन दिनों में उन्होंने अनेक विषयों पर विचार सांझा किए और एकाधिक सत्रों में उनसे कुछ सवाल-ज़बाब हुए. एक असाधारण प्रतिभा के धनी रंगशिल्पी को जान लेने के लिए यद्यपि यह अवसर पर्याप्त नहीं था, परन्तु उनकी सोच और सर्जनात्मक कौशल की एक बानगी के रूप में यह यात्रा हमेशा याद रहेगी. उनके जोधपुर आगमन से कई दिन पूर्व से ही शहर में सरगर्मी फ़ैली हुई थी. राजस्थान के लब्ध प्रतिष्ठित रंगकर्मी, आलोचक एवं मीडियाकर्मी थियम के नाटकों को लेकर बेहद उत्सुक थे. ट्रकभर कर साथ लाए उपकरण और मंच सामग्री को देखकर, और कड़े अनुशासन में पूर्वाभ्यास करते रंग-मंडल सदस्यों से मिलकर, तरह-तरह की बातें हो रही थी. और यह कौतूहल अप्रत्याशित भी न था. रतन थियम देश ही नहीं विदेशों में भी सम्मान से लिए जाना वाला नाम है और उन्हें विश्व केशीर्षस्थ निर्देशकों में गिना जाता है. उनकी सृजन यात्रा इतनी विस्तृत और गौरवशाली है कि दर्शक दीर्घा में ऐसा कोई नहीं होगा जिसने उनके बारे में पढ़ा-सुना न हो. परन्तु वास्तविक नाट्यानुभव अनुमान से कई गुना बेहतर और निराला था. समारोह की प्रथम प्रस्तुति राजा (The King of Dark Chamber) गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर के नाट्यालेख पर आधारित अद्मुत नाट्यानुभूति साबित हुई. नाटक देख कर निकले अधिकांश दर्शक आत्मविस्मृति r के ऐसे भँवर में डूबते-उतरते दिखाई दिए जिसका वर्णन करना कठिन है, यह देखना रुचिकर लगा. राजा की प्रस्तुति के अगले दिन थियम ने अपने नाट्य सृजन पर विचार करते हुए कहा कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक होने से पूर्व उन्होंने अपने पिता से शास्त्रीय संगीत एवं मणिपुरी नृत्य की विधिवत दीक्षा प्राप्त की थी. साथ ही वे चित्रकला से भी प्रभावित रहे हैं इसी के चलते निर्दशन को ऐसे निरखते हैं जिस तरह पेंटर अपने कैनवास को. दीगर बातों के साथ थियम ने इस बात को स्वीकार किया कि मणिपुर में फ़ैली अराजकता, गरीबी और बेरोज़गारी उनकी सृजन सम्वेदना को इस कदर पभावित कर चुकी है कि वे, जाने-अनजाने अमन-चैन और शांति के समर्थक और हिंसा-विरोधी विचारधारा के पैरोकार कहलाने लगे हैं. शायद इसलिए उनके नाटकों में या तो युद्ध और विध्वंस के खिलाफ़ रुख दिखाई देता है या राजशाही को सदाचरण की नसीहत सुनाई देती है और या फिर मणिपुर की भाषा और संस्कृति को बचाए रखने की पुकार होती है.
रंगकर्मियों के साथ हुए उनके संवाद में से कुछ प्रतिनिधि सवाल और उनके ज़बाब संक्षेप में यहाँ दिये जा  रहे है.
सवाल: कोई निर्देशक अपने नाटक के लिए स्क्रिप्ट का चुनाव किस आधार पर करता है?
जबाब: हर निर्देशक अपनी सोच और सम्वेदना के आधार पर विषय अथवा आलेख चुनता है. दूसरों के बारे में दावे से कहना ठीक नहीं होगा पर मैं अपनी खुशी और संतोष के लिए नाटक करता हूँ. वे ‘शबरी के बेर’ का हवाला देते हुए कहते हैं कि जो कृति स्वयं उन्हें परिपक्व और रसीली नहीं लगती, वे उसे दर्शकों को नहीं दिखाते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि ऐसी कई स्क्रिप्ट और बीज नाटक पर पूर्व में वे कार्य कर चुके हैं और महीनों काम करने  के बाद वे इस नतीजे पर पहुँचे कि उस प्रोजेक्ट का परित्याग करना ही श्रेयस्कर होगा.
सवाल: यथार्थवाद (Realism) और बाकी फॉर्म में फर्क कैसे किया जाए? निर्देशक यह कैसे जाने कि कौन सा फॉर्म किस स्क्रिप्ट के लिए उचित रहेगा?
जबाब: इस बात का निर्णय या तो निर्देशक के रुझान पर निर्भर करता है, और या फिर स्क्रिप्ट में से ही इसे तलाशना पड़ता है. थियम ने कहा की नाट्य विधा की औपचारिक शिक्षा के तहत संसार भर में यह सिखाया जाता है कि फॉर्म कितने प्रकार के हो सकते हैं जैसे यथार्थवाद, प्रकृतवाद, प्रतीकवाद, प्रभाववाद, असंगत नाट्य परम्परा आदि. एक युवा निर्देशक के लिए यद्यपि यह जाननाआवश्यक होता है कि यह वर्गीकरण कैसे हुआ और विश्व-नाट्य परम्परा में यह फॉर्म कैसे पहचाने गए, परन्तु कभी किसी युवा सृजनकर्ता को सायास किसी शैली का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए. स्वयं की सृजन शैली पर चर्चा करते हुए थियम ने माना कि उन पर ‘साल्वाडोर डाली’  की पेंटिंग्स का गहरा प्रभाव रहा है. अतः उनके सृजन में surrealism (अतियथार्थवाद) का प्रभाव दिखता है.
सवाल: आपके नाटक में कुछ स्थान पर ऐसा क्यों प्रतीत होता है कि अभिनेता के चेहरे पर पर्याप्त प्रकाश नहीं है, आप मंचमुखी लाइट्स (F.O.H.) का उपयोग कम से कम क्यों करते हैं?
जबाब: मंच का आलोकन नाटक के संकेतार्थ उभारने में गहरी भूमिका निभाता है. आप को यह समझना होगा कि हर निर्देशक ऐसा प्रयत्न करता है कि उसे जो दिखाना है और जितना दिखाना है, उतना ही दर्शक को दिखाई दे. मसलन हमारा नाटक ‘राजा’ एक ऐसा नाटक है जो मनुष्य के मन के अंधेरे का चित्रण करता है. टैगोर के नाटक की यह प्रस्तुति इस भौतिकवादी युग की चकाचौंध को बाह्य रोशनी के रूप में और मानव मन की असीमित इच्छाओं को आंतरिक अंधकार के रूप में परिभाषित करती है. इस प्रकार के सांकेतिक गूढ़ार्थ अभिव्यक्त करने हेतु खास तरह की प्रकाश व्यवस्था की आवश्यकता थी. इस परिकल्पना को बड़ी सावधानी से और लंबे विचार विमर्श के बाद तैयार किया गया है. इसमें त्रुटि या दुर्घटना की सम्भावना की खोज करना अनुचित होगा.
सवाल: आपके नाटक इतने अधिक खर्चीले और श्रमसाध्य होते हैं कि औसत रंगकर्मी इस तरह के सृजन के बारे में सोच भी नहीं सकता. क्या एक सीमित संसाधनों वाला साधारण रंगकर्मी इस तरह के नाटक कभी कर पाएगा?
जबाब: क्यों नहीं? यदि कोई शख्स ठान ही ले और समझोता न करे तो वह किसी भी सीमा में बंध कर कार्य करने को विवश नहीं है. स्वयं अपना उदाहरण देते हुए थियम ने कहा कि उन्हें  अपना प्रेक्षाग्रह बनाने और रंग-मण्डल को स्थापित करने में पच्चीस साल से भी अधिक समय लगा. इस दौरन उन्हें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा और उनकी टीम ने बहुत कठिन समय  देखा है. बोलते-बोलते वे पुरानी यादों में खो गए और रुंधे गले से बताया कि संघर्ष के दिनों में  उनके पास पैसे नहीं थे. इसलिए वस्त्र विन्यास से लेकर मंच सामग्री तक के लिए किसी पेशेवर  विशेषज्ञ की सेवाएँ नहीं ले पाए. धीरे-धीरे, अथक प्रयासों से सब कार्य स्वयं करने की आदत डाल ली. आज़ उनकी टीम मंचन के दौरन काम आने वाली हर सामग्री स्वयं तैयार करती है. अपनी  कार्यस्थली मणिपुर को लेकर भावुक होते हुए थियम ने कहा, “हिंसा और विद्रोह की आग में  झुलस रहा पूर्वोत्तर भारत, और वहाँ के मुट्ठी भर समर्पित लोग यदि जीवन मूल्यों के प्रति ईमानदार  रहते हुए सृजनशील रह सकते हैं, तो कोई भी रह सकता है.
समारोह का दूसरा नाटक इब्सन लिखित ‘व्हैन वी डैड अवेकन’ (When We Dead Awaken) पर आधारित एक मणिपुरी रूपान्तरण ‘अशिबागी एझेई’ के नाम से प्रस्तुत किया गया और दर्शकों पर गहरी छाप छोड़ गया. इब्सन का यह नाटक एक बहुपक्षीय रूपक के तौर पर विख्यात है जो गृहस्थ जीवन की उलझन और सृजन वेदना के द्वंद्व का समन्वेषण करता है. थियम के अनुसार वह एक ऐसा नाटक तैयार करना चाहते थे जिसके माध्यम से वह इस महान कृति की सूक्ष्म बातों को मणिपुर के लोगों से सांझा कर सकें. वहीं उनकी इच्छा यह थी कि वे मणिपुरी मुहावरे की सही व्याख्या करे  और उनका सृजन संसार भर में  स्वीकार्य हो. बकौल थियम साहब, “इसी सोच के तहत अशिबागी एझेई की बुनावट में इब्सन के मूल नाटक के नाट्यलेख को अक्षरशः अनुपालन करने की बजाय, मैने उनकी कथ्यपरक विषयवस्तु को प्रस्तुत करने पर अधिक बल दिया.”
इस मंचन के दूसरे दिन संवाद की दूसरी कड़ी में, रंगकर्मियों ने उनसे कुछ और सवाल पूछे. उनमें से कुछ प्रस्तुत है.
सवाल: नाटक के केन्द्रीय किरदार शक्तम लाक्पा (इब्सन के आर्नोल्ड रयूबिक) ने पारपरिक मणिपुरी परिधान के ऊपर एक आधुनिक विदेशी जैकेट (कोट) पहना है. क्या इसमें कोई गूढ़ संकेतार्थ  छिपा है?
जबाब: शक्तम लाक्पा एक मूर्तिकार हैं और मैने पूर्वांचल के तमाम कलाकारों और शिल्पियों को इस तरह के कपड़ों में देखा है. मेरे एक रिश्तेदार जो स्वयं एक मूर्तिकार हैं, वे (भी) इस तरह का परिधान पसंद करते है. इसलिए मैंने इस किरदार को इस तरह का वस्त्र-विन्यास देने का निश्चय किया.
सवाल: नाटक के चरमबिन्दु पर  मूल लेखक ने ऊँचे पहाड़ पर हिमस्खलन का उल्लेख किया है जिसमें आर्नोल्ड रयूबिक और उनकी प्रेरणा, आइरिन दफ्न हो जाते है. आपने इस प्रस्तुति में शक्तम लाक्पा  और शर्तम के साथ ऐसा घटित होने क्यों नहीं दिया?
जबाब: जैसा मैं अक्सर कहता हूँ, हम नाटक के मूल आलेख का ‘Thematic content’ लेकर उसे अपने परिवेश और संवेदनाओं में उतारने का प्रयास करते हैं. इस नाटक में पश्चिमी सोच के मुताबिक विनाश का होना तर्क संगत हो सकता है पर हमारी संस्कृति के अनुसार शक्तम और उसकी प्रेरणा दोनों का मिलना और शीर्ष पर स्थापित हो जाना उचित लगा. इस कारण अंत बदल कर प्रस्तुत  किया गया.
सवाल: किसी प्रस्तुति का Thematic Content मूल आलेख के प्रति कितना ईमानदार/सत्यनिष्ठ हो सकता है? यद्यपि इसका उत्तर कठिन है पर हम युवा रंगकर्मियों को यह समझ नहीं आता कि  स्क्रिप्ट का कितना अंश रखना है और कौन सा नहीं?
जबाब: यह सवाल बहुत अच्छा है. आपने ठीक कहा कि इस सवाल का जबाब तलाशना कठिन है. मैं इसका जबाब इब्सन के इस नाटक को उदाहरण स्वरूप रखते हुए देना चाहता हूँ. इब्सन यथार्थवादी परंपरा के नाटककार मानें जाते हैं, पर अपने इस अंतिम नाटक When We Dead Awaken  में उन्होंने प्रतीकवाद और बिम्ब-वैविध्य का ऐसा तना-बाना बुना जो पूरी दुनिया में अपनी तरह का अनूठा था. इस नाटक की सृजन प्रक्रिया को याद करते हुए के यह नाटक उन्हें किस कदर पसंद है और इसे मंच पर लाना कितना चुनौतीपूर्ण रहा. भाषांतर की प्रक्रिया के दौरन उन्हें कई मर्तबा ऐसा लगा जैसे वह एक असाधारण प्रतिभा के धनी सृजनधर्मा के साथ लुका-छिपी खेल रहे हों. पर इस पूरी प्रक्रिया में कोई नियम, कोई पुस्तक या कोई व्यक्ति उन्हें यह नहीं बता  सका कि स्क्रिप्ट का कौनसा अंश उन्हें नहीं रखना है. पूरी विनम्रता और विनयशीलता से  थियम ने स्वीकारा के सहजवृत्ति  के लिए उन्हें जो उचित लगा उन्होने वही किया. शायद इब्सन ने एक बैचेन शिल्पी की सृजन यात्रा के माध्यम से हमें समझाना चाहा था, कि  हर सृजनशील व्यक्ति अपनी प्रेरणा की तलाश में कभी न खत्म होने वाली यात्रा पर अग्रसर है. यह एक ऐसी ज्ञान-पिपासा है जो एक वरदान भी है और एक श्राप भी .
रतन थियम के नाटकों का फलक बड़ा विशाल होता है. वे उनेक रंगों से सृजन करते हैं. जैसे कल्पनाशील मंचसज्जा, अनूठी प्रकाश व्यवस्था, लोक जीवन से अनुप्रेरित रंग बिरंगे परिधान, मनभावन कोरियोऑग्राफी, लोमहर्षक लड़ाई के दृश्य, आदि. इन तमाम अवयवों के निपुण संयोजन से किस तरह मूल पाठ के सूक्ष्म अर्थभेद से दर्शक का साक्षात्कार करवाया जा सकता है - यह जानना    यहाँ के रंगकर्मियों के लिए बेहद शिक्षाप्रद था.
                                                   विकास कपूर

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